पिछले कुछ दिनों से देश में मेडिसिन लोचा जोर पर है. सरकार कह रही है कि डॉक्टरों को अब जेनेरिक दवाएं लिखनी होगी ताकि गरीबों तक भी बेस्ट दवाएं कम दाम में उपलब्ध हो सकें. तो दूसरी तरफ अब रेजिडेंट डॉक्टरों ने सरकार को एक चिट्ठी लिखने का फैसला किया है जिसमें वो सरकार को धमकी देंगे कि जेनेरिक दवाएं लिखने से अगर किसी मरीज को दिक्कत हुई या उसकी तबीयत बिगड़ गई तो हमारी जिम्मेदारी नहीं होगी.
खैर. डॉक्टरों और सरकार के बीच की इस शह-मात के खेल से परे पहले, ये जानिए कि आखिर जेनेरिक दवाएं होती क्या हैं और क्यों सरकार और डॉक्टर इसे लेकर आमने-सामने खड़े हो गए हैं?
• जेनेरिक दवा क्या है?
किसी दवा की पेटेंट अवधि जब एक बार खत्म हो जाए तो उसके बाद कोई भी कंपनी उस दवा का निर्माण और मार्केटिंग कर सकती है. इसके लिए उन्हें सबसे पहले उस दवा को बनाने वाली कंपनी से इजाजत लेने की जरुरत नहीं होती. हां हर कंपनी को इस बात का ध्यान जरूर रखना पड़ता है कि जो जेनेरिक दवाई वो बना रही है, उसका असर उसकी मूल दवा जैसा ही हो. मतलब कॉपी की गई दवाई उतनी ही मात्रा में एक्टिव इंग्रेडिएंट रीलिज करता हो और शरीर के द्वारा उसी मात्रा में एब्जॉर्व किया जाए, जैसे ऑरिजनल दवा की होती है. ऐसी दवाएं जेनेरिक कही जाती हैं.
✓ जेनेरिक दवा और उनका दावा
✓ ब्रांडेड जेनेरिक क्या हैं?
✓ जेनेरिक दवाओं को जब एक ट्रेड नाम या ब्रांड नाम के तहत बेचा जाए तो उसे ब्रांडेड जेनेरिक कहा जाता है.
• ब्रांडेड जेनेरिक और सामान्य जेनेरिक दवाओं के बीच अंतर क्या है?
दोनों के बीच अंतर सिर्फ नाम का है. एक को किसी ब्रांड के नाम के साथ बेचा जाता है और दूसरा एक सामान्य नाम के साथ बिकता है. लेकिन असलियत ये है कि ये दोनों ही जेनेरिक दवाएं हैं, जो पेटेंट समाप्त होने के बाद बनाई जा रही हैं. जेनेरिक दवाएं किसी ब्रांड नाम के बजाय बिना किसी ट्रेडमार्क या सामान्य नाम से बेचा जाता है. इंटरनेशनल नॉनप्रॉपराइट्री नेम (आईएनएन) फार्मास्युटिकल पदार्थों या एक्टिव फ़ार्मास्यूटिकल सामग्रियों की पहचान करने के लिए दिया गया एक यूनीक नाम होता है.
• जेनेरिक प्रेस्क्रीप्शन को आखिर क्यों पसंद किया जाता है?
कंपनियां अपनी ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं के प्रचार में मोटा पैसा खर्च करती हैं जिसकी लागत निकालने के लिए ये अपनी दवाओं की कीमत बढ़ा देती हैं और ये जेनेरिक दवाओं की तुलना में काफी महंगी हो जाती हैं. दवाओं की कीमत को कम करने के लिए अधिकतर हेल्थ सिस्टम जेनेरिक दवाओं को ही बढ़ावा देते हैं. साथ ही ये भी सुनिश्चित करते हैं कि इनकी क्वालिटी पर भी कोई फर्क ना पड़े. जेनेरिक नाम सिर्फ मेडिकल और दवाइयों की किताबों में ही पाई जाती हैं. हालांकि अब ये उम्मीद की जा रही है कि जेनेरिक नामों के ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल के बाद अब इसका प्रोडक्शन, सेल और दवाइयों के डीस्ट्रीब्यूशन पर काफी फर्क पड़ेगा.
• भारत में डॉक्टर जेनेरिक नाम की दवाओं को प्रेस्क्रीप्शन पर लिखने से आखिर क्यों कतराते हैं?
हमारे यहां डॉक्टर अक्सर दवा कंपनियों के दबाव में होते हैं और उन्हें लगता है कि ट्रेड नाम के साथ बेची गई दवाएं ही बेहतर क्वालिटी की होती हैं. हालांकि हमारे यहां की दवा नियामक प्रणाली की खस्ता हाल और दवाइयों की क्वालिटी चेक करने की लचर व्यवस्था को देखते हुए कई ब्रांडेड जेनेरिक दवाओं और जेनेरिक नाम वाली दवाओं की गुणवत्ता संदेह के घेरे में भी रहती हैं, और इस कारण से डॉक्टरों की चिंता भी जायज है. ब्रांडेड और जेनेरिक नाम वाली दवाओं पर खुदरा विक्रेताओं को भारी मुनाफा मिलता है. इस कारण से भी डॉक्टरों को ये डर होता है कि कहीं फार्मासिस्ट इसका इस्तेमाल उन कंपनियों के प्रोडक्ट को बेचने में इस्तेमाल ना करने लगें जो उन्हें सबसे अधिक मार्जिन देती हैं. डॉक्टरों का कहना है कि मरीजों के इलाज के लिए उन्हें ही सीधा जिम्मेदार ठहराया जाता है, ना की खराब क्वालिटी वाली दवाएं देने के लिए फार्मासिस्ट को दोषी माना जाएगा.
• विकसित देशों में जेनेरिक prescribe की क्या स्थिति है?
2008 के आर्थिक संकट के बाद से अधिकांश विकसित देशों ने जेनेरिक दवाओं के चलन को बढ़ाने के लिए कई उपाय किए हैं. अमेरिका, ब्रिटेन, चिली, जर्मनी और न्यूजीलैंड में बेची जाने वाली कुल दवा में 33 फीसदी जेनेरिक दवाएं होती हैं. वहीं इटली, फ्रांस और जापान में बाजार के में 25 फीसदी जेनेरिक दवाएं होती हैं. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) देशों में 66 प्रतिशत जेनेरिक दवाओं की बिक्री करने की इजाजत मिली है और फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और एस्टोनिया में इतनी ही मात्रा में जेनेरिक दवाइयों को बेचना अनिवार्य किया हुआ है. यही नहीं कई विकसित देशों ने जेनेरिक दवाओं के लिए कीमतें भी तय कर रखी है.
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